अबूझमाड़ की नई पहचान: जहाँ कभी गूंजती थी गोलियों की आवाज़, अब वहां कैमरे की क्लिक सुनाई दे रही है
लाल गलियारे से सिनेमा के परदे तक — अबूझमाड़ में उम्मीद, विकास और संस्कृति का नया सूर्योदय

नारायणपुर से विशेष प्रतिनिधि।
कभी नक्सल हिंसा के लिए बदनाम रहा अबूझमाड़ अब अपनी नई कहानी लिख रहा है।
जहाँ कभी गोलियों की आवाज़ों से घाटियां गूंजती थीं, आज वहां कैमरों की क्लिक और फिल्मी गीतों की धुनें सुनाई दे रही हैं।
बस्तर के इस दुर्गम अंचल की पहचान अब बंदूक नहीं, बल्कि संस्कृति, सृजन और सिनेमा बनती जा रही है।
अबूझमाड़ में फिल्म ‘दण्डा कोटुम’ की शूटिंग — उम्मीद की नई शुरुआत
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ क्षेत्र में इन दिनों छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘दण्डा कोटुम’ की शूटिंग जोरों पर है।
फिल्म के निर्माता एवं हास्य कलाकार अमलेश नागेश का कहना है —
“मैं ऐसी फिल्म बनाना चाहता हूं जो सिर्फ मनोरंजन न हो, बल्कि अबूझमाड़ की असली पहचान को दुनिया के सामने लाए —
इसकी मिट्टी, संस्कृति और परंपरा को।”
कभी नक्सल गतिविधियों का गढ़ माने जाने वाले मसपुर, गारपा और होरादी गांवों में कैमरे घूम रहे हैं, लाइटें जल रही हैं और स्थानीय लोग हंसते हुए कैमरे के सामने अभिनय कर रहे हैं।
गांव की गलियों में अब फिल्मी संवाद गूंजते हैं, और यही दृश्य अबूझमाड़ के बदलते चेहरे की सबसे बड़ी मिसाल हैं।
लाल गलियारे से फिल्मी लोकेशन तक का सफर
कुछ साल पहले तक अबूझमाड़ का नाम आते ही भय का अहसास होता था।
यह इलाका नक्सली हिंसा का पर्याय बन चुका था।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सुरक्षा बलों के निरंतर अभियानों, सड़क निर्माण और प्रशासनिक पहल ने इस क्षेत्र की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है।
मसपुर गांव से मात्र 200 मीटर की दूरी पर पुलिस कैंप खोले जाने के बाद से नक्सली घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है।
आज यहां शांति है, लोग खेतों में काम कर रहे हैं, बच्चे स्कूल जा रहे हैं और कलाकार कैमरों के सामने मुस्कुरा रहे हैं।
‘दण्डा कोटुम’ — जंगल, जल और जमीन की कहानी
फिल्म का शीर्षक “दण्डा कोटुम” गोंडी भाषा से लिया गया है —
जहाँ ‘दण्डा’ का अर्थ है बस्तर का जंगल और ‘कोटुम’ का अर्थ वन।
यह फिल्म जल, जंगल और जमीन के उस त्रिकोणीय संबंध को दर्शाती है जो बस्तर की आत्मा में बसा है।
निर्माता अमलेश नागेश बताते हैं —
“यह फिल्म सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि बस्तर की आत्मा है।
हम दिखाना चाहते हैं कि अबूझमाड़ सिर्फ संघर्ष की भूमि नहीं, बल्कि सादगी, संवेदना और संस्कृति की धरती है।”
शूटिंग शुरू करने से पहले टीम ने जिला प्रशासन, पुलिस विभाग और 12 ग्राम सभाओं से औपचारिक अनुमति प्राप्त की।
स्थानीय ग्राम प्रधान अर्जुन दादा ने ग्राम सभा में कहा —
“अब हमारे गांव में फिल्म बन रही है, यह हमारे लिए सम्मान की बात है।”
स्थानीय लोगों की भागीदारी — कैमरे के सामने अबूझमाड़
फिल्म यूनिट में करीब 150 सदस्य हैं, जिनमें से कई स्थानीय कलाकार और ग्रामीण युवा भी शामिल हैं।
गांव की महिलाएं फिल्म क्रू के लिए भोजन बना रही हैं, बच्चे सेट पर कलाकारों के पीछे-पीछे दौड़ते हैं,
और बुजुर्ग गर्व से कहते हैं —
“अब हमारे गांव का नाम भी दुनिया में जाएगा।”
अमलेश नागेश बताते हैं,
“शुरुआत में भाषा एक चुनौती थी। यहां की माड़िया बोली गोंडी की उपभाषा है, लेकिन अब सब एक परिवार जैसे हैं।
अबूझमाड़ के लोग बेहद आत्मीय और सहयोगी हैं।”
नक्सलवाद से मुक्ति — विकास और विश्वास का परिणाम
नारायणपुर पुलिस अधीक्षक रॉबिनसन गुड़िया का कहना है —
“अबूझमाड़ अब लगभग नक्सल मुक्त है।
बड़ी संख्या में नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है और जो इलाके पहले दूर-दराज माने जाते थे,
अब वहां सड़क, बिजली और मोबाइल नेटवर्क पहुंच चुका है।”
उन्होंने बताया कि इन इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के नए अवसर खुल रहे हैं।
अबूझमाड़ के जलप्रपात, पहाड़ और वन अब सिर्फ कहानियों में नहीं, बल्कि कैमरे की रील पर दर्ज हो रहे हैं।
अबूझमाड़ — डर से नहीं, अवसर से जुड़ी नई कहानी
यह सिर्फ एक फिल्म की शूटिंग नहीं, बल्कि विकास और विश्वास की नई पटकथा है।
जहाँ कभी हथियारों की छाया में भय का साम्राज्य था,
वहीं आज संस्कृति और सृजन का उत्सव मनाया जा रहा है।
अमलेश नागेश भावुक होकर कहते हैं —
“जब कैमरा ऑन होता है और पहाड़ों के बीच सूरज उगता है,
तो लगता है जैसे अबूझमाड़ खुद कह रहा है — मैं अब जाग चुका हूं।”
अबूझमाड़ की यह यात्रा लाल गलियारे से हरियाली की ओर,
भय से विश्वास की ओर और
संघर्ष से सृजन की ओर बढ़ते छत्तीसगढ़ की जीवंत गवाही है।
अंत में…
अबूझमाड़ की कहानी अब सिर्फ अंधेरे की नहीं, बल्कि नई रोशनी की है।
जहाँ कभी गोलियों की गूंज थी, अब वहां गीत हैं, कला है, और जीवन की नई लय है।
यह बदलाव सिर्फ भौगोलिक नहीं, मानसिक और सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक है।
अबूझमाड़ आज कह रहा है —
“मैं अब डर नहीं, विकास की कहानी हूं।”




